Saturday, October 13, 2007

एक प्यारी सी ग़ज़ल

बशीर साहेब की एक ग़ज़ल आपकी नज़र

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर न हों
एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हों

वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हों
* सिफ़त:

मेरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी मह्व-ए-ख़्वाब है
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो

कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब के फूल को चूम
यूँ ही साथ-साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

Wednesday, October 10, 2007

hiiii

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता पर हर किसी का अपना सपनो का जहाँ ज़रूर होता है वैसे ही मेरा भी अपना एक जहाँ है- सारा जहाँ , जहाँ मैं , मेरे सपने हकीकतें हैं, कुछ खारी कुछ मीठी ,कुछ बांटने के लिए कुछ सहेजने के लिए कुछ सहने के लिए