बशीर साहेब की एक ग़ज़ल आपकी नज़र
कभी यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर न हों
एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हों
वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हों
* सिफ़त:
मेरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी मह्व-ए-ख़्वाब है
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो
कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब के फूल को चूम
यूँ ही साथ-साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
Saturday, October 13, 2007
Wednesday, October 10, 2007
hiiii
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता पर हर किसी का अपना सपनो का जहाँ ज़रूर होता है वैसे ही मेरा भी अपना एक जहाँ है- सारा जहाँ , जहाँ मैं , मेरे सपने हकीकतें हैं, कुछ खारी कुछ मीठी ,कुछ बांटने के लिए कुछ सहेजने के लिए कुछ सहने के लिए
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